हर किस्सागो का अपना एक खालिस अंदाज होता है किस्सागोई का और प्रशांत नील का भी अपना अंदाज है जिससे हमसभी केजीएफ में बखूबी वाकिफ हो चुके हैं मसलन मास ऑडियंस को पसन्द आने वाला हीरो जो अकेले ही किसी आर्मी से लडऩे के लिए काफी होता है। और इस बार तो प्रशांत ने अपने हीरो को लार्जर दैन नहीं बल्कि लार्जर दैन लार्जेस्ट बना दिया है। बाहुबली के बाद प्रभाष सभी दर्शक के आँखों का तारा बन गए थे और दर्शकों का वो स्नेह और सम्मान अभी तक कायम है ये अलग बात है कि उसके बाद की उनकी फ़िल्मों ने अति आत्मविश्वास और कमजोर कहानी से उन्हें और उनके प्रशंसकों को भी निराश किया होगा.।
होंबाले फिल्म्स और प्रशांत नील ने सालों के इंतजार के बाद लोगों के लिए उनके बाहुबली को देवा बना कर प्रस्तुत किया है और यह देवा बिल्कुल उसी अमरेंद्र बाहुबली के चारित्रिक और नैतिक मूल्य पर टिका हुआ जिसमें शौर्य है तो करुणा भी है, जिसमें तप भी है और ताप भी, बाहुबली के लिए भी अपनी माँ का आदेश सर्वोपरि था और देवा के लिए भी। बाहुबली का जो औरा स्क्रीन पर क्रियेट हुआ था वही औरा सलार में भी है।
बेशक इसका ट्रेलर बहुत ज्यादा प्रभावशाली नहीं था मगर फिल्म बहुत प्रभावशाली है और इंगेज रखती है। कहानी में इतने प्लाट और कैरेक्टर है कि बारीक नजर रखनी पडती है। मूलतः दोस्ती, सत्ता के लिए षड्यंत्र, पिता की हत्या का प्रतिशोध ये सब बहुत ही typed सब्जेक्ट है भारतीय फ़िल्मों के लेकिन एक टाइप्ड प्लाट की बेहतर प्रस्तुति हो तो वह जरूर प्रभावित करेगी।
काफी समय बाद दोस्ती को फिल्म का सब्जेक्ट बनाय् गया है।इस दोस्ती में अमिताभ-अमजद जी की याराना वाली दोस्ती की जज्बात तो है मगर गीतों की मिठास की जगह बम के धमाके, बारूद की गंध, और खून के स्याही से लिखे गए दोस्तों की महब्बत है।
एक्शन ड्रामा के तौर पर फिल्म को पसंद किया जा सकता है।पहला पार्ट है तो सभी कैरेक्टर पुरी तरह अभी डिफाइन नहीं हो पाए हैं। खानशार की जो दुनिया बनाई गई है उसके लिए पुरे अंक मिलते हैं फिल्म को। टेक्निकली भी फिलम अच्छी है। पसंद व्यक्तिगत हो सकती है। मगर कुछ मामलों में मुझे केजीएफ से अच्छी लगी। जैसे केजीएफ में अपने रॉकी भाई का अपनी प्रेमिका को एंटरटेनमेंट का साधन कहना अखर गया था मुझे और संसद में गोलीबारी करना भी। मगर इसमें देवा ने स्त्री का सम्मान किया है। ग्रूप में किसी बहन का पोस्ट था कि वो महारा कबीले की लडकियों से दुष्कर्म में औघर वाले काले कपडें और सनातनी प्रतीकों से आहत हुए तो मैं समझ सकता हूँ कि हम सबकी अपनी इंटरप्रेटेशन और भावना होती है। लेकिन वहाँ पर स्त्री को शक्ति के रूप में दिखाया है यह बताया गया है कि पाप का शक्ति को प्रतिकार करना चाहिए पाप का। काफी समय बाद काली माता की उपासना की गयी किसी फिल्म में मेरे खयाल से करन अर्जुन में आखिरी बार की गयी थी। प्रशांत नील की एक बात मुझे बहुत अच्छी लगती है कि वह अपनी कहानी में महिला चरित्र को शक्तिशाली बनाते हैं और माँ की भूमिका को प्रेरणादायी और संघर्षशील बनाते हैं।
फिल्म के सबल पक्ष :
1.अच्छी कहानी के सभी सामग्री का होना।
2.दमदार एक्शन जो थिएटर में सीटी और ताली बजाने पर मजबूर करते हैं।
3. 1985 से 2017 तक की कहानी को अच्छे से बैलेंस करना
4. जो सबसे अच्छी बात मुझे लगी वो प्यार मुहब्बत वाला क्युटियापा का नहीं होना।
5. क्लाइमैक्स का शानदार सस्पेंस अगले पार्ट के लिए जिज्ञासा पैदा करता है।
6. बहुत सारे सीन बाहुबली के लगते हुए भी बोर नहीं करते बल्कि जोश दिलाते हैं। प्रभास भाई को आदत हो गयी है सर तन से जुदा करने की। यहाँ तो ब्रो बलात्कारी बेटे को सूली पे लटका के मारा तो उसके बाप को सर तन से जुदा कर के।
7. मुख्य रूप से पुरुष प्रधान फिल्म कह सकते हैं।
कमजोर पक्ष :
1. पहले पार्ट में पृथ्वीराज का कमजोर character.
2. सहायक भूमिका में अन्य कलाकारों को ज्यादा स्पेस नहीं मिल पाया है।
3. जैसे संजय लीला भंसाली की फिल्म में स्क्रीन नीला रहता है वैसे ही नील अपनी फिल्म में स्कीन को डार्क रखते हैं।
4. भारत सरकार को असक्षम दिखाना जहां एक मुहर देख कर कस्टम वाले हो या पुलिस वाले स्मगलिंग की सूचना पर भी चेक नहीं करते हैं। पोर्ट पर. ऑफिसर का सील देख के डरना ओवर ऐक्टिंग की इन्तेहा लगी।
5. श्रुति हसन के लिए कुछ नहीं था पहले पार्ट में.
निष्कर्ष : शुद्ध मास मसाला फिल्म है जिसका असली मजा थियेटर में ही आएगा। पैसा वसूल है और अकेले देखते हुए भी बोर नहीं होते।
Group Name | Group Link |
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फिल्म | सलार |
निर्देशक-लेखक | प्रशांत नील |
अवधि | 2 घण्टे 52 मिनट |
भाषा | तेलुगु, हिन्दी |