ऐसा नही है कि भोपाल गैस त्रासदी के बारे में किसी को पता नही हैं। ऐसा भी नही है कि रेलवे कर्मचारियों के योगदान पर लिखा सुना नही गया है।
ऐसा भी नही है कि ये बात किसी से छुपी हुई है कि जब एक रात सांस लेने की वजह से बीस हजार लोग मरते है तो वो घटना किस तरह के चेन ऑफ इवेंट्स क्रिएट करती है। हम सब को थोड़ा बहुत ये सारी चीजे मालूम थी। पर हम सब इस घटना को, इस त्रासदी को सुबह के अखबार की हेडलाइन की तरह ही जानते है समझते है। ऐसी हेडलाइन जिसे पढ़ने के बाद हम पर थोड़ा सा असर तो होता है, पर जैसे ही अगले पन्ने पर हमे कुछ और इंट्रेस्टिंग पढ़ने के लिए मिल जाता हैं हम इस हेडलाइन के असर से दूर हो जाते है कि, एक रात में एक शहर की आबादी का बड़ा हिस्सा अचानक से मर गया और जब बात सामने जीने और मरने की बात आई तो लोग अपना स्वभाव, अपनी आदतें, अपनी क्षमता सब कुछ छोड़कर एक साथ खड़े हुए इस मुसीबत को लड़ने के लिए। रेलवे मेन को लिखने वाले आयुष गुप्ता ने जब इसे सोचना या लिखना शुरू किया होगा तो उनके पास बस यही था बुनियाद के तौर पर। वो चाहते तो एक एक बॉलीवुड राइटर की तरह इसी को गन्ने की मशीन में बार बार डालकर जबरदस्ती के इमोशनल सीन निकालते, जो हकीकत से भले ही दूर हो, पर घटना की परिधि के सेट हो जाते है।
आयुष गुप्ता ने इसे जब लिखना शुरू किया था तो ये कहानी सिर्फ एक पन्ने की थी। किसी जानने वाले के जरिए से आयुष वो एक पन्ना लेकर पहुंचे शिव के पास, जो यशराज की कई बड़ी फिल्मों में डायरेक्टर को असिस्ट कर चुके थे और अपने डायरेक्टोरियल डेब्यू के किए अच्छे सब्जेक्ट का इंतजार कर रहे थे। इस एक पन्ने ने शिव को बहुत इंप्रेस किया क्युकी शिव को इस त्रासदी की कहानी में किरदारों की जद्दोजहद दिखी इंसानियत बचाने के लिए। शिव ये सब्जेक्ट लेकर आदित्य चोपड़ा के पास गए। आदित्य चोपड़ा को वैसे भी शिव पर पूरा यकीन था तो उन्होंने उस सब्जेक्ट को हरी झंडी दिखा दी और आयुष से कहा गया कि वो इस सब्जेक्ट के इर्द गिर्द एक फिल्म का स्क्रीनप्ले लिखे। आयुष स्क्रीनप्ले ने वैसा ही किया, पर ढाई तीन घंटे की फिल्म के तौर पर इस स्क्रिप्ट से न तो शिव खुश थे, न आयुष न ही आदित्य चोपड़ा। ये वो वक्त था जब हर कोई ओटीटी में पाव जमाने या घुसेड़ने में लगा हुआ था, हिंदी सिनेमा के जायंट प्रोडक्शन हाउस के तौर पर यशराज ने अभी ओटीटी की दौड़ में हिस्सा नहीं लिया था। पर आज नही कल उन्हे हर हाल में इस खेल में उतरना था। आदित्य शिव, और आयुष ने मिलकर ये फैसला किया कि इसे चार पार्ट की सिरीज के तौर पर बनाया जाए तो ज्यादा बेहतर। इससे वक्त की कोई बंदिश न होने के कारण आयुष के पास पूरी आजादी होगी कि वो हर कैरेक्टर के इमोशनल बैगेज उनके गिल्ट, गुनाह, गलतियों को बहुत बारीकी से कहानी में पिरोए, जो बहुत लाउड न होते हुए भी किरदारों को एक वजन दे जिससे कहानी अपना मकसद कहने में कामयाब हो जाए।
टाइम और लेंथ की आजादी के बाद आयुष ने नए सिरे से इसे लिखना शुरू किया और तब उन्होंने सबसे पहली कोशिश ये जानने की की थी कि उस रात हुआ क्या था? और अलग अलग हैसियत, और जगह के लोगो पर किस तरह से इस घटना ने असर किया और वो इस घटना को किस नजरिए से देखते है। इसके लिए उन्होंने ढेर सारे इंटरव्यू लिए जो उस दौरान थे या जिनके अपनो ने उन्हे उस रात की कहानियां सुनाई है।उसके बाद आयुष ने कागजात खंगाले, उस रात के बारे में जो कुछ जानकारी उन्हे मिली वो सब इकट्ठा किया। इन सब के बाद आयुष का काम आसान नहीं मुश्किल हो गया होगा। क्युकी उनके पास जो रिसर्च का डेटा रहा होगा उससे शायद चार एपिसोड की चालीस सिरीज बनाई जा सकती थी।
एक राइटर के तौर पर आयुष की ये ईमानदारी थी, और काबिलियत थी कि उन्होंने इस सीरीज में उतना ही लिखा जितने की जरूरत थी। ज्यादा बजट मिलने की वजह से ऐसा नही हुआ कि आयुष ने सौ ग्राम गाजर के हलवे में अस्सी ग्राम खोआ और पच्चीस ग्राम ड्राय फ्रूट डाल दिए हो। यही वजह है कि जब आप ये सिरीज देखेंगे तो न तो आपको बोरियत महसूस होगी, न ही एंड के बाद ऐसा लगेगा कि कोई बात, कोई किरदार अधूरा रह गया हो, किसी किरदार के आर्क में जल्दबाजी दिखाई गई हो। अब आयुष ने इस सीरीज को कागज पर उतार दिया था और उसे उनके हवाले किया जो इसे कागज से ज्यों का त्यों उठा कर स्क्रीन पर ले आयेंगे। और ये जरूरी थी कि यहां से हर इंसान अपना छोटे से छोटा काम जिम्मेदारी और ईमानदारी से करे वरना इस परफेक्ट स्क्रीनप्ले को स्क्रीन पर कबाड़ होने से कोई नही रोक सकता था।
आयुष गुप्ता ने बाकी लोगो को एक रास्ता एक मैप बना कर दे दिया था, जिस पर बाकी कास्ट एंड क्रू को बस चलना था, और इस सफर का पहला कदम था कास्टिंग
तीन साल की रिसर्च,मेहनत और लगन के बाद जब आयुष ने स्क्रीनप्ले डायरेक्टर शिव को थमाया तो ये शिव की जिम्मेदारी थी कि वो दर्शको तक ये बात पहुंचाए कि इस सीरीज के स्क्रीनप्ले पर तीन साल तक जिम्मेदारी से कड़ी मेहनत की गई है। अगला पड़ाव था कास्टिंग। आदित्य चोपड़ा इतनी हैसियत रखते है कि वो इंडस्ट्री के सभी बड़े नाम इस प्रोजेक्ट के साथ जोड़ सकते थे। कोई और स्क्रिप्ट होती तो शायद कोई मना भी कर दे, पर ऐसी स्क्रिप्ट को मना करने के लिए या तो आपके डेट की दिक्कत होगी या फिर अक्ल की। आयुष की इस कहानी में कहने को चार मुख्य किरदार थे।
इफ्तिकार सिद्दीकी, जो कि स्टेशन मास्टर है, और उसके कंधो पर पूरे स्टेशन के चाल चलन की जिम्मेदारी है। इमाद रियाज, जो कार्बाइड फैक्ट्री का पुराना इम्प्लोई है और उसे नई नई रेलवे में लोको पायलट की नौकरी मिली है। कांस्टेबल, जो कौन है कहा से आया है ये नही पता, सिर्फ ये पता है कि वो क्यू आया है। रति पांडे, जो की जीएम के पद पर है, और किसी भी रेलवे स्टेशन पर अचानक जांच परख के लिए पहुंचने के लिए बदनाम है। इफ्तिकार सिद्दीकी के रोल में ज्यादा परते नही थी, वो जैसा है वैसा दिखता है, वैसा बोलता है। उसके अपने पछतावे है, पर वो उसके अंदर ही कही दफन है। वो अपनी जिम्मेदारी समझता है, दूसरो को जिम्मेदारी समझाना भी जानता है। इस रोल के लिए ऐसे एक्टर को लिया गया जो एफर्टलेस एक्टिंग के लिए जाना जाता है। केके मेनन।
इमाद रियाज का किरदार ऐसा था जिसे पहले सीन में हम एक बस्ती के बेहाल और बेतरतीब कमरे में अपनी साइज से बड़ा स्वेटर पहने हुए देखते है।हम अभी इमाद की गरीबी का अंदाजा लगा ही रहे होते है कि हम उसे एक बड़ी कंपनी के खिलाफ बिना डरे झिझके रिकॉर्डेड बयान देते हुए देखते है। ये किरदार अपनी बेबसी और मजबूरी समेटे हुए हमारे जहन को पहले सीन से एहसास दिलाता है कि वो क्या है, और क्या कर सकता है। इमाद का किरदार चिल्लाता नही कि वो सेल्फलेस है, या जान दे देगा दूसरो के लिए पर, उसकी एंट्री के बाद से ही हमे यकीन हो जाता है कि ये लड़का कुछ भी कर गुजरेगा। पहले सीन से ऐसा इंपैक्ट इसलिए पड़ता है क्युकी दर्शक इमाद रियाज के किरदार में बाबिल को देख रहे होते है। इससे पहले की बाबिल अपने एक्सेंट की बारीकी और हाव भाव से अपने अभिनय की महक छोड़े, वो हमारे लिए इरफान खान का बेटा है, और एक अलग ही लगाव, मुहब्बत हम अपने अंदर महसूस करते है जो उसके किरदार को यकीनी बनाने में और हमारे दिल में उतरने में मदद करता है।
तीसरा किरदार बलवंत यादव ऐसा किरदार है, जिसके बारे में हमे डरावनी बाते सुनने को ही मिलती है। ये एक चालाक और निडर किरदार है, जिसे अपनी जिंदगी का परपज मिल चुका है। और वो इस वजह से किसी पर रहम नहीं करता न ही उसे अपने किए का किसी तरह का अफसोस है। उसकी जिंदगी का एक ही परपज है सर्वाइवल, ऐसा करने के लिए किसी की भी लाश पर चढ़ना हो उसे गुरेज नहीं। पर इस किरदार के बारे में ज्यादातर घिनौनी बाते हमे सिर्फ सुनाई जाती है। सिरीज में सिवाय बाथरूम सीन के, कही भी इस किरदार को खुले तौर पर खून खराबा करते नही दिखाया गया है। तो एक दर्शक के तौर पर हमारे दिमाग में उसकी वो छवि है, जो उसके स्क्रीन पर कदम रखते ही हम सुनते आ रहे है, यानी एक शक का बीज है, जो सिरीज मेकर ने हमारे दिमाग में डाल दिया है,ताकि हम जहनी तौर पर ये उम्मीद करते रहे कि ये कुछ अपनी ख्याति अनुरूप करेगा। ये एक ऐसा किरदार था, जो जब स्क्रीन पर होता, हमे कुछ बुरे का अंदेशा रहता, पर किसी किसी सीन में ये किरदार हमे बहुत मजबूर, अकेला और थका हुआ दिखाई देता। इस किरदार को कोई भी काबिल एक्टर निभा सकता था पर देवयेंदु का मुन्ना भईया का रुतबा यहां थोड़ी बहुत हेल्प कर रहा था। हम जानते है कि मुन्ना भईया कितना विध्वंसक इंसान है, पर हमे ये भी पता है कि नितांत अकेले में मुन्ना भईया का किरदार मिर्जापुर सिरीज का सबसे दुखदाई किरदार है। टाइपकास्ट होना किसी एक्टर के लिए पाप की तरह है, पर कई किरदारों में ये चीज आपके काम आती है कि दर्शक पहले से अपने जहन में एक चेहरा बनाकर आपको देखने आए हो
चौथा किरदार है जीएम रति पांडे का। ये किरदार दिखने में सपाट लगता है, पर है नही। अगर आप चारो किरदारों को देखते है तो इफ्तीकार सिद्दीकी का जो फर्ज था वो उसने किया। वो उस घटना के वक्त मौजूद भी था और जिम्मेदार भी। इमाद रियाज का किरदार कार्बाइड फैक्ट्री और भोपाल स्टेशन के बीच की कड़ी था। क्युकी इस सिरीज का मकसद ये बताना था कि इंसानियत कितनी गहरी हमारे अंदर धंसी है जो हमेशा बुरे वक्त में सामने आ जाती हैं। तो इस मकसद को समझाने के लिए ये दो किरदार बलवंत यादव और जीएम रति पांडे बहुत जरूरी थे।क्युकी इमाद के पास एक मकसद था, सिद्दीकी के ऊपर जिम्मेदारी थी। पर बाकी दोनो के साथ ऐसा नही था। बलवंत यादव लालच के लिए आया था, वो सपने में भी सोच नही सकता था कि वो लूटा हुआ पैसा लौटा सकता है। पर फिर भी बलवंत यादव वहा उस वक्त मौजूद था, देख रहा था आंखो से सबको तड़पते हुए। पर रति पांडे को बिल्कुल भनक नहीं थी कि वहा क्या हो रहा है, और जब उसे पता चला तब भी हालात की वीभत्सता का अंदाजा नही था। फिर भी रति पांडे ने वही किया, जो सिद्दीकी, इमाद और बलवंत यादव कर रहे थे। ये किरदार वो चौथी कड़ी था कहानी की, जिसमे ये बताने की कोशिश की गई है की इंसान पर जब इंसानियत हावी होती है, तो वो उस आग में भी कूद सकता है, जो उसके रास्ते के उल्टी दिशा में लगी हुई है। इस किरदार को आर माधवन को निभाने के किए चुना गया था, और आर माधवन की अब तक की इमेज ऐसी है कि वो जो भी आत्मघाती फैसले लेता है, दर्शको को यकीन होता है है कि ये किरदार ऐसा कर सकता है जबकि हम उस किरदार को आधी सिरीज के बाद देख रहे है, और हमे बिलकुल आइडिया नही है कि वो क्या है और कैसा है।